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नई दिल्ली- क्या जानते हैं कभी तिब्बत एक आजाद मुल्क था । लेकिन 1949 में ब्रिटेन से आजाद होने बाद चीन ने 1950 में तिब्बत पर आक्रमण कर दिया और तिब्बत से एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा छीन लिया गया । जब एक बार चीन फिर से हमारी सीमा पर अपनी आर्मी इकठ्ठा कर रहा है तो एतिहासिक दस्तावेजों को खंगालने की जरुरत हैं। जब चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने 1950 में तिब्बत पर हमला किया उस वक्त भारत में पंडित जवाहर लाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे । कई एतिहासिक भूल पंडित नेहरू के जिम्मे हैं उनमें से एक तिब्बत भी है। भारत की तत्कालीन सरकार चाहती तो तिब्बत आज भारत और चीन के मध्य एक बफर स्टेट के रुप में रह सकता था ।
फ्रांसीस मूल के लेखक ,पत्रकार और तिब्बत की इतिहास के जानकार क्लाउडे अर्पी ने ‘विल तिब्बत एवर फाइंड हर सोल अगेन’ नाम की एक पुस्तक लिखी है उसमें उन्होंने एतिहासिक तथ्यों के हवाले से लिखा है कि जब चीनी सेना तिब्बत को तबाह कर रही थी तो उसके खाने के लिए चावलों की सप्लाई भारत से हो रही थी हिंदी चीनी भाई –भाई के दौर में भारत के सप्लाई किए हुए चावल खाकर चीनी सेना ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया और तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे में खोए रहे। उन्होंने इस पुस्तक में स्पष्ट रूप से चीन के आक्रमण, छल-प्रपंच और तिब्बत को अजगर की तरह निगल जाने का व्यापक रूप से जानकारी दी है कि कैसै नेहरू द्वारा मूर्खतापूर्ण तरीके से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को चावल की आपूर्ति करने का भी जिक्र किया है । यह चावल कूटनीति चार वर्षों से जारी रही। 20 अक्टूबर 1954 को, इस बात पर फिर से जोर दिया गया कि भारत तिब्बत में तैनात पीएलए को चावल की आपूर्ति जारी रखेगा। चीन जो चावल भारत से खरीद रहा था वो विशेष रूप पर तिब्बत के लिए था इस खबर को द हिंदू ने रिपोर्ट किया था। चीन से परिवहन की कठिनाइयों को देखते हुए चीन इस खरीद को अंजाम दे रहा था । दस महीने बाद जब पहला चीनी ट्रक चीन की तरफ से ल्हासा तक रसद सामिग्री लेकर पहुंचा तो फिर चीन की निर्भरता भारत पर चावल के लिए नहीं रह । वो लिखते हैं तिब्बतियों के लिए चावल कभी भी उनका परम्परागत भोजन नहीं रहा था तिब्बती जौ से बने खाना खाते थे जिसे वो तत्स्यो कहते थे।
नेहरू का चीन प्रेम यहीं समाप्त नहीं होता , बहुत कम लोगों जानकारी होगी कि नेहरू ने संसद को सूचित किए बिना तिब्बत के ल्हासा और झिंझियांग के कासगर में भारतीय मिशनों को बंद कर दिया था। नेहरू ने क्या सोच कर इन मिशनों को बंद किया था ? वो भी बगैर भारतीय संसद को सूचित किया । नेहरू की आत्ममुग्धता और विश्वनेता बनने की इच्छा ने चीन की सभी इच्छाएं पूरे की थी । जिसका परिणाम आज तक भारत और तिब्बती भुगत रहे हैं।
1950 के दशक की शुरुआत पीएलए की टुकड़ियों को चावल खिलाने की सबसे अधिक घटिया घटना थी। अर्पी लिखते हैं “दिल्ली के सक्रिय समर्थन के बिना, चीनी सैनिक तिब्बत में जीवित नहीं रह सकते थे।” उन्होंने लिखा कि तत्कालीन भारतीय नेतृत्व दीवार पर लिखी साफ इबारत को नहीं पढ़ पाया । अर्पि ने आगे लिखा है कि हिमालय के आर-पार भारत-चीन व्यापार के फलने-फूलने के बाद चीन ने उस समय तवांग और नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) पर कभी दावा नहीं किया, जो साबित करता है कि चीन अरुणाचल प्रदेश (भारतीय क्षेत्र का 90,000 वर्ग किलोमीटर) पर जो दावा करता है, दुश्मनी में ऐसा करता है और ‘दक्षिण तिब्बत’ की अवधारणा निर्मित की गई है।
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अर्पी ने अपनी पुस्तक में उस समय चीन में तैनात भारतीय राजदूत केएम पन्निकर के बारे में लिखा है कि वो नेहरू के बजाय माओ के राजदूत ज्यादा नजर आते थे उन्होंने चीन के बचाव हर समय पर किया जब चीनी सेना तिब्बत के संस्कृति और लोगों को तबाह कर रही थी तो उन्होंने भारत सरकार को लिखे अपने नोट में “बहुत समय से तिब्बत के बारे में कोई खबर नहीं आई है और आशा है कि तिब्बत को फिर से सही होने में समय लगेगा और चीनी अधिकारी उसकी अच्छे से देखभाल करेंगे”
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पुस्तक में तत्कालीन रक्षामंत्री वीके कृष्णा मेनन का भी जिक्र है। उनकी बायोग्राफी लिखने वाले टी.जे.एस. जॉर्ज के हवाले से जिक्र किया गया है कि उनको आत्मनिर्भरता की ऐसी सनक की थी उन्होंने सैना के लिए साजोसमान बनाने वाले कारखानों को हेयरकिल्प्स और प्रेशर कुकर बनाने वाले कारखानों में तब्दील कर दिया था और सेना के लिए युद्ध सामान आयात करने से मना कर दिया था। सेना मानती थी कि मेनन रक्षामंत्री लायक नहीं है , वो सेल्फ प्रोमोशन में ज्यादा व्यस्त रहते थे , लगातार विदेशी यात्राएं करते थे। लेकिन नेहरू की कृपा से वो लगातार मंत्री बने रहे।
माओ त्से तुंग ने मुख्य भूमि चीन को समृदि्ध प्रदान करने के लिए तिब्बत, झिंझियांग और इनर मंगोलिया को हड़प लिया। माओ ने तिब्बत को चीन की हथेली और लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और नेफा को इसकी पांच उंगलियां कहा था । लेकिन भारत कभी भी माओ त्से तुंग के इस स्टेटमेंट की गहराई नहीं पहचान पाया । जैसे नेहरू तिब्बत के सामरिक महत्व , अपने और चीन के बीच एक बफर स्टेट के रूप में पहचानने में विफल रहे।
“लम्हों ने खता की है सदियों ने सजा पाई” नेहरू की गलतियों की सजा देश आज तक भुगत रहा है । हमें नेहरू की महानता का जो इतिहास पढ़ाया गया है उसे पुर्नावलोकन की जरूरत है। क्या सही, क्या गलत हुआ था उसको जानने की जरुरत है ताकि इतिहास से सबक लेकर चीन से जमीन के भूखे देश के बारे में दुनिया जान सके , और चीन को चीन के ही तरीके से मात दी जा सके। माओ की बात चीन को आज भी याद है लेकिन शायद भारत भूल गया है। हमें चीन की व्यवहार और उसके विचारों को अच्छे से अध्ययन करने की जरूरत है । वामपंथी अध्ययनवेत्ताओं का चीन से वैचारिक भाईचारा है इस बात का ख्याल रखते हुए चीन को समझने की जरुरत है।
इस लेख में व्यक्त गिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।
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