कहानी टूटू रेजिमेंट की ,चीन से लड़ने को तैयार की गई एक खुफिया रेजीमेंट ,, जो सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है ।
टूटू रेजीमेंट भारतीय सैन्य ताकत का वह हिस्सा है जिसके बारे में बहुत कम जानकारियां ही सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं। यह रेजीमेंट आज भी बेहद गोपनीय तरीके से काम करती है और इसके होने का कोई प्रूफ भी पब्लिक नहीं किया गया है।
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नई दिल्ली- इस कहानी की शुरुआत वर्ष 2018 में हुई थी । यना नाम की मशहूर गायिका जो युरोप के एस्टोनिया से भारत एक गाने की सुटिंग के लिए आई । यना ने अपने गाने की सूट के लिए उतराखंड के चकराता क्षेत्र को चुना । चकराता चारों ओर से जंगल और पहाड़ियों से घिरा है । यना के इस सुटिंग का पता जैसे ही लोकल इंटेलिजेंस युनिट को लगा वह मौके पर पहुंच कर यना को सुटिंग बंद करने को कहा इसके साथ यना और उसके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया ।उन्हें देश छोड़कर जाने का नोटिस थमा दिया गया और स्थानीय पुलिस ने केंद्र सरकार से कहा कि यना को ब्लैक-लिस्ट कर दिया जाए, ताकि वे भविष्य में भारत न आ सकें।
यना के साथ यह घटना इसलिए घटी क्योंकि चकराता एक प्रतिबंधित क्षेत्र है। यहां केंद्रीय गृह मंत्रालय की अनुमति के बिना किसी भी विदेशी नागरिक को जाने की इजाजत नहीं है। यना इस बात से अनजान थीं और वो बिना किसी परमिशन के ही यहां दाखिल हो चुकी थीं, इसलिए उन्हें इस कार्रवाई का सामना करना पड़ा।
यना की ही तरह अधिकतर भारतीय नागरिक भी इस बात से अनजान हैं कि चकराता में बाहरी देशों के लोगों पर प्रतिबंध है । यह रोक क्यों है, इस बात की समझ तो और भी कम लोगों को है। चकराता एक छावनी क्षेत्र है जो कि सामरिक दृष्टि से भी काफी संवेदनशील है। यहां विदेशियों के आने पर प्रतिबंध की सबसे बड़ी वजह है भारतीय सेना की बेहद गोपनीय टूटू रेजीमेंट।
टूटू रेजीमेंट भारतीय सैन्य ताकत का वह हिस्सा है जिसके बारे में बहुत कम जानकारियां ही सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं। यह रेजीमेंट आज भी बेहद गोपनीय तरीके से काम करती है और इसके होने का कोई प्रूफ भी पब्लिक नहीं किया गया है।
जवाहर लाल नेहरू ने टूटू रेजिमेंट बनाने का फैसला लिया था
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इस रेजिमेंट की स्थापना आजादी के 15 साल बाद वर्ष 1962 में की गई । यह समय भारत चीन के युद्ध का दौर भी था उस वक्त के आईबी चीफ भोला नाथ मलिक के सुझाव पर तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने टूटू रेजीमेंट बनाने का फैसला लिया था।
इस रेजीमेंट को बनाने का मकसद ऐसे लड़ाकों को तैयार करना था जो चीन की सीमा में घुसकर, लद्दाख की कठिन भौगोलिक स्थितियों में भी लड़ सकें। इस काम के लिए तिब्बत से शरणार्थी बनकर आए युवाओं से बेहतर कौन हो सकता था। ये तिब्बती नौजवान उस क्षेत्र से परिचित थे, वहां के इलाकों से वाकिफ थे।
जिस चढ़ाई पर लोगों का पैदल चलते हुए दम फूलने लगता है, ये लोग वही दौड़ते-खेलते हुए बड़े हुए थे। इसलिए तिब्बती नौजवानों को भर्ती कर एक फौज तैयार की गई। भारतीय सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल सुजान सिंह को इस रेजीमेंट का पहला आईजी नियुक्त किया गया। सुजान सिंह दूसरे विश्व युद्ध में 22वीं माउंटेन रेजीमेंट की कमान संभाल चुके थे। इसलिए नई बनी रेजीमेंट को ‘इस्टैब्लिशमेंट 22’ या टूटू रेजीमेंट भी कहा जाने लगा।
मजेदार बात यह है कि टूटू रेजीमेंट को शुरुआती दिनों में ट्रेंड करने का काम अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए ने किया था। इस रेजिमेंट के जवानों को अमेरिकी आर्मी की विशेष टुकड़ी ‘ग्रीन बेरेट’ की तर्ज़ पर ट्रेनिंग दी गई। इसके साथ ही, टूटू रेजिमेंट को एम-1, एम-2 और एम-3 जैसे हथियार भी अमेरिका की तरफ से ही परोसा गया।
इस रेजीमेंट के जवानों की अभी भर्ती भी पूरी नहीं हुई थी कि नवंबर 1962 में चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी, लेकिन इसके बाद भी टूटू रेजीमेंट को भंग नहीं किया गया। बल्कि इसकी ट्रेनिंग इस सोच के साथ बरकरार रखी गई कि भविष्य में अगर कभी चीन से युद्ध होता है तो यह रेजीमेंट हमारा सबसे कारगर हथियार साबित होगी।
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टूटू रेजीमेंट के जवानों को विशेष तौर से गुरिल्ला युद्ध में ट्रेंड किया जाता है। इन्हें रॉक क्लाइंबिंग और पैरा जंपिंग की स्पेशल ट्रेनिंग दी जाती है और बेहद संवेदनशील हालातों में भी जिंदा रहने के गुर सिखाए जाते हैं।
साल 1971 में इस रेजिमेंट को स्पेशल ऑपरेशन ईगल में शामिल किया गया था

अपनी आक्रमकता और साहस का प्रमाण टूटू रेजीमेंट ने 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में भी दिया है, जहां इसके जवानों को स्पेशल ऑपरेशन ईगल में शामिल किया गया था। इस ऑपरेशन को अंजाम देने में टूटू रेजीमेंट के 46 जवानों को शहादत भी देनी पड़ी थी। इसके अलावा 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार, ऑपरेशन मेघदूत और 1999 में हुए करगिल युद्ध के दौरान ऑपरेशन विजय में भी टूटू रेजीमेंट ने अविश्वनीय भूमिका निभाई ।
शहिदों को नही मिलती सार्वजनिक सम्मान
इस रेजीमेंट के जवानों को कभी ये मलाल भी नही रहा की अपनी क़ुर्बानियों के बदले उन्हें सार्वजनिक सम्मान मिलें। जो अन्य शहीद जवानों को मिलता है। इसके पीछे वजह है कि टूटू रेजीमेंट बेहद गोपनीय तरीके से काम करती रही है। इसकी गतिविधियों की जानकारी कभी आम लोगों तक नही आती ।
इसके साथ ही इन जवानों को मिलने वाली सम्मान से भी वंचित रखा जाता है यही वजह है कि 1971 में शहीद हुए टूटू के जवानों को न तो कोई मेडल मिला और न ही कोई पहचान मिली। जिस तरह से रॉ के लिए काम करने वाले देश के कई जासूसों की कुर्बानियां अक्सर गुमनाम जाती हैं, वैसे ही टूटू के जवानों के शहादत को पहचान नहीं मिल सका।
बीते कुछ सालों में इतना फर्क जरूर आया है कि टूटू रेजीमेंट के जवानों को अब भारतीय सेना के जवानों जितना ही वेतन मिलने लगा है। दिल्ली हाई कोर्ट ने कुछ साल पहले कहा था, ‘ये जवान न तो भारतीय सेना का हिस्सा हैं और न ही भारतीय नागरिक है। लेकिन, इसके बावजूद भी ये भारत की सीमाओं की रक्षा के लिए हमारे जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे हैं।’
पूर्व सेना प्रमुख दलबीर सिंह संभाल चुके हैं कमान
टूटू रेजीमेंट आधिकारिक तौर पर भारतीय सेना का हिस्सा नहीं है। हालांकि, इसकी कमान डेप्युटेशन पर आए किसी सैन्य अधिकारी के ही हाथों में होती हैं। पूर्व भारतीय सेना प्रमुख रहे दलबीर सिंह सुहाग भी टूटू रेजीमेंट की कमान सम्भाल चुके हैं। यह रेजिमेंट सेना के बजाय रॉ और कैबिनेट सचिव के जरिए सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है।
शुरुआती दौर में जहां टूटू रेजीमेंट में सिर्फ तिब्बती मूल के जवानों को ही भर्ती किया जाता था, वहीं अब गोरखा नौजवानों को भी टूटू का हिस्सा बनाया जाता है। इस रेजीमेंट की रिक्रूटमेंट भी पब्लिक नहीं किया जाता है।
आज टूटू रेजीमेंट के भीतर जवानों की संख्या, अफसरों की संख्या, तथा इसकी बेसिक औऱ एडवांस ट्रेनिंग कैसे होती है इसकी कोई जानकारी सार्वजनिक नही होती है । यह एक रहस्यमयी रेजिमेंट के तौर पर देखा जाता है । रेजीमेंट का उद्देश्य आज भी वही है जो इसकी स्थापना के वक्त था।
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